140. राग देवगंधार – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग देवगंधार

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मेरौ गोपाल तनक, सौ, कहा करि जानै दधि की चोरी ।

हाथ नचावत आवति ग्वारिनि, जीभ करै किन थोरी ॥

कब सीकैं चढ़ि माखन खायौ, कब दधि-मटुकी फोरी ।

अँगुरी करि कबहूँ नहिं चाखत, घरहीं भरी कमोरी ॥

इतनी सुनत घोष की नारी, रहसि चली मुख मोरी ।

सूरदास जसुदा कौ नंदन, जो कछु करै सो थोरी ॥

भावार्थ / अर्थ :– मेरा नन्हा-सा गोपाल दहीकी चोरी करना क्या जाने । अरी ग्वालिन ! तू हाथ नचाती हुई आती है, अपनी जीभको क्यों नहीं चलाती? इसने कब तेरे छींके चढ़कर मक्खन खाया और कब दहीका मटका फोड़ा? घरपर ही कमोरी भरी रहती है, कभी यह अँगुली डालकर चखतातक नहीं है । सूरदासजी कहते हैं – इतनी फटकार सुनकर व्रजकी ग्वालिन चुपचाप मुँह मोड़कर (निराश होकर) यह कहती हुई चली गयी कि यशोदाका लाड़िला जो कुछ करे, वही थोड़ा है ।