राग गौरी
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महरि ! तुम मानौ मेरी बात ।
ढूँढ़ि-ढ़ँढ़ि गोरस सब घर कौ, हर््यौ तुम्हारैं तात ॥
कैसें कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल-कंध दै लात ।
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसैं तेरैं खात ?
असंभाव बोलन आई है, ढीठ ग्वालिनी प्रात ।
ऐसौ नाहिं अचगरौ मेरौ, कहा बनावति बात ॥
का मैं कहौं, कहत सकुचति हौं, कहा दिखाऊँ गात !
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्याँ लरिका ह्वै जात ॥
( उस गोपीने आकर कहा-) ‘व्रजरानी! तुम मेरी बात मानो (उसपर विश्वास करो) तुम्हारे पुत्र ने मेरे घरका सारा गोरस ढूँढ़-ढ़ाँढ़कर चुरा लिया ।’ (यशोदाजीने पूछा) बात तुम कैसे कहती हो कि इसने छींकेपरसे गोरस ले लिया?’ (वह बोली-) ‘किसी गोपकुमारके कंधे पर पैर रखकर चढ़ गये थे ।’ (यशोदाजी बोलीं -)’यह घरपर तो धौरी (पद्मगन्धा) गाय का दूध (भी) नहीं पीता, तुम्हारे यहाँ (का दहीं–मक्खन) कैसे खा जाताहै?सबेरे सबेरे यह ढीठ गोपी असम्भव बात कहने आयी है !तू इतनी बातें क्यों बनाती है? मेरालड़का इतना ऊधमी नहीं है ।’ सूरदासजी कहते हैं – (गोपीने कहा-) ‘(अब) मैं क्या कहूँ, कहते हुए संकोच होता है और अपना शरीर कैसे दिखालाऊँ । ये तो लड़के बन जाते हैं, किंतु इनके गुण बहुत बड़े हैं (अनोखे ऊधम ये किया करते हैं ) ।’
[195]
साँवरेहि बरजति क्यौं जु नहीं ।
कहा करौं दिन प्रति की बातैं, नाहिन परतिं सही ॥
माखन खात, दूध लै डारत, लेपत देह दही ।
ता पाछैं घरहू के लरिकन, भाजत छिरकि मही ॥
जो कछु धरहिं दुराइ, दूरि लै, जानत ताहि तहीं ।
सुनहु महरि, तेरे या सुत सौं, हम पचि हारि रहीं ॥
चोरी अधिक चतुरई सीखी, जाइ न कथा कही ।
ता पर सूर बछुरुवनि ढीलत, बन-बन फिरतिं बही ॥
भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं ( गोपी ने यशोदाजीसे कहा-) ‘तुम श्यामसुन्दरको मना क्यों नहीं करती ? क्या करूँ, इनकी प्रतिदिनकी बातें (नित्य-नित्यका उपद्रव) सही नहीं जातीं । मक्खन खा जाते हैं, दूध लेकर गिरा देते हैं, दही अपने शरीरमें लगा लेते हैं और इसके बाद भी (संतोष नहीं होता तो) घरके बालकों पर भी मट्ठा छिड़ककर भाग जाते हैं । जो कुछ वस्तुएँ दूर (ऊपर ले जाकर छिपाकर रखती हूँ, उसको वहाँ भी (पता नहीं कैसे ) जान लेते हैं । व्रजरानी सुनो, तुम्हारे इस पुत्रसे बचनेके उपाय करके हम तो थक गयीं । चोरीसे भी अधिक इन्होंने चतुराई सीख ली है, जिसका वर्णन किया नहीं जा सकता । ऊपरसे बछड़ोंको (और) नखोल देते हैं, (उन्हें पकड़ने) हम वन-वन भटकती फिरती हैं ।’