राग रामकली
[172]
……………
मो देखत जसुमति तेरैं ढोटा, अबहीं माटी खाई ।
यह सुनि कै रिस करि उठि धाई, बाहँ पकरि लै आई ॥
इक कर सौं भुज गहि गाढ़ैं करि, इक कर लीन्हीं साँटी ।
मारति हौं तोहि अबहिं कन्हैया, बेगि न उगिलै माटी ॥
ब्रज-लरिका सब तेरे आगैं, झूठी कहत बनाइ ।
मेरे कहैं नहीं तू मानति, दिखरावौं मुख बाइ ॥
अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, दिखराई मुख माँहि ।
सिंधु-सुमेर-नदी-बन-पर्वत चकित भई मन चाहि ॥
करतैं साँटि गिरत नहिं जानी, भुजा छाँड़ि अकुलानी ।
सूर कहै जसुमति मुख मूँदौ, बलि गई सारँगपानी ॥
भावार्थ / अर्थ :– (किसी सखा ने कहा-) ‘यशोदाजी! तुम्हारे पुत्रने मेरे देखते देखते अभी मिट्टी खायी है ।’ यह सुनते ही माता क्रोध करके दौड़ पड़ी और बाँह पकड़कर श्यामको (घर) ले आयीं । एक हाथसे कसकर भुजा पकड़कर दूसरे हाथमें छड़ी ले ली (और डाँटकर बोलीं-) ‘कन्हैया! मैं अभी तुझे मारती हूँ, झटपट तू मिट्टी उगलता है या नहीं ?'(श्यामसुन्दर बोले-) ‘मैया ! व्रजके ये सभी बालक तेरे सम्मुख झूठी बात बनाकर कहते हैं । यदि तू मेरे कहनेसे नहीं मानती तो मुख खोलकर दिखला देता हूँ।’ (यों कह कर) श्यामने मुखके भीतर ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका विस्तार दिखला दिया । समुद्र, सुमेरु आदि पर्वत,नदियाँ तथा वन (मुखमें देखकर) माता अत्यधिक आश्चर्यमें पड़ गयी । हाथसे छड़ी कब गिर गयी, इसका उसे पता ही न लगा । श्यामका हाथ छोड़कर व्याकुल हो गयी । सूरदासजी कहते हैं कि यशोदाजीने कहा–‘मेरे शार्ङ्गपाणि ! अपना मुख बंद कर लो, मैं तुमपर बलिहारी जाती हूँ ।’