राग धनाश्री
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मोहन काहैं न उगिलौ माटी ।
बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिये साँटी ॥
महतारी सौं मानत नाहीं कपट-चतुरई ठाटी ।
बदन उधारि दिखायौ अपनौ, नाटक की परिपाटी ॥
बड़ी बार भइ, लोचन उधरे, भरम-जवनिका फाटी ।
सूर निरखि नँदरानि भ्रमित भइ, कहति न मीठी-खाटी ॥
भावार्थ / अर्थ :– श्रीव्रजरानी हाथमें छड़ी लिये कहती हैं–मोहन ! मिट्टी उगल क्यों नहीं देते ?’ वे बार-बार (इस कार्यसे ) अपने लालके मनमें घृणा उत्पन्न करना चाहती हैं । (किंतु) श्रीकृष्ण (अपनी) माताकी बात नहीं मान रहे हैं, उन्होंने कपटभरी चतुराई ठान ली है । सूरदासजी कहते हैं कि तब श्यामने मुख खोलकर नाटक के समान (सम्पूर्ण विश्व) दिखला दिया, इससे श्रीनन्दरानी बड़ी देरतक खुले नेत्रों से (अपलक) देखती रह गयी; मैं माता हूँ और ये मेरे पुत्र हैं–उनके इस भ्रमका पर्दा फट गया । (इस अद्भुत दृश्यको) देखकर वे इतनी चकरा गयीं कि भला-बुरा कुछ भी नहीं कह पातीं ।