117. राग रामकली – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग रामकली

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पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै ।

करि-करि पाक जबै अर्पत है, तबहीं-तब छूवैं आवै ॥

इच्छा करि मैं बाम्हन न्यौत्यौ, ताकौं स्याम खिझावै ।

वह अपने ठाकुरहि जिंवावै, तू ऐसैं उठि धावै ॥

जननी दोष देति कत मोकौं,बहु बिधान करि ध्यावै ।

नैन मूँदि, कर जोरि, नाम लै बारहिं बार बुलावै ॥

कहि अंतर क्यौं होइ भक्त सौं जो मेरैं मन भावै ?

सूरदास बलि-बलि बिलास पर, जन्म-जन्म जस गावै ॥

भावार्थ / अर्थ :– पाँड़ेजी भोग नहीं लगा पाते । जब-जब खीर बनाकर (अपने आराध्यको) अर्पित करते हैं, तभी-तभी मोहन उसे छू आता है । (इससे माता डाँटने लगीं-) ‘मैंने तो बड़ी उमंगसे ब्राह्मणको निमंत्रण दिया और श्याम! तू उन्हें चिढ़ाता है ? वे अपने ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तब तू यों ही उठकर दौड़ पड़ता है ।'( यह सुनकर मोहन बोले-) ‘मैया ! तू मुझे क्यों दोष दे रही है, वह ब्राह्मण (स्वयं) बड़े-विधानसे मेरा ध्यान करता है । नेत्र बंद करके,हाथ जोड़कर बार-बार नाम लेकर मुझे बुलाता है । भला, बता-जो भक्त मेरे मनको भा जाता है, उससे मुझमें अन्तर कैसे रहे ? (मैं उससे दूर कैसे रह सकता हूँ।)’ सूरदास तो इस लीलापर बार-बार न्योछावर है (प्रभो! मुझे तो यही वरदान दो कि) जन्म-जन्ममें तुम्हारे ही यशका गान करूँ ।