170. राग केदारौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग केदारौ

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हरि के बदन तन धौं चाहि ।

तनक दधि कारन जसोदा इतौ कहा रिसाहि ॥

लकुट कैं डर डरत ऐसैं सजल सोभित डोल ।

नील-नीरज-दल मनौ अलि-अंसकनि कृत लोल ॥

बात बस समृनाल जैसैं प्रात पंकज-कोस ।

नमित मुख इमि अधर सूचत, सकुच मैं कछु रोस ॥

कतिक गोरस-हानि, जाकौं करति है अपमान ।

सूर ऐसे बदन ऊपर वारिऐ तन-प्रान ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं – (गोपी समझा रही है-) ‘श्यामके मुखकी ओर तो देखो । यशोदाजी! तनिक-से दहीके लिये इतना क्रोध क्यों करती हो ? तुम्हारी छड़ीके भयसे भीत इसके अश्रुभरे नेत्र ऐसी शोभा दे रहे हैं जैसे भौंरौंके बच्चों द्वारा चञ्चल किये नीलकमलके दल हों । जैसे सबेरेके समय नालसहित कमलकोष वायु के झोंकोंसे झुक गया हो, उसी प्रकार इसका मुख झुका हुआ है और इसके ओष्ठोंसे संकोचके साथ कुछ क्रोध प्रकट होता है । गोरसकी इतनी कितनी हानि हो गयी, जिसके लिये मोहनका अपमान करती हो । ऐसे सुन्दर मुखपर तो शरीर और प्राण भी न्योछावर कर देना चाहिये ।’

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मुख छबि देखि हो नँद-घरनि !

सरद-निसि कौ अंसु अगनित इंदु-आभा-हरनि ॥

ललित श्रीगोपाल-लोचन लोल आँसू-ढरनि ।

मनहुँ बारिज बिथकि बिभ्रम, परे परबस परनि ॥

कनक मनिमय जटित कुंडल-जोति जगमग करनि ।

मित्र मोचन मनहुँ आए ,तरल गति द्वै तरनि ॥

कुटिल कुंतल, मधुप मिलि मनु कियो चाहत लरनि ।

बदन-कांति बिलोकि सोभा सकै सूर न बरनि ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कहति है-) नन्दरानी! (अपने लालके) मुखकी शोभा तो देखो, यह तो शरद्की रात्रिके अगणित किरणोंवाले चन्द्रमाओंकी छटाको भी हरण कर रहा है । श्रीगोपाल के सुन्दर (एवं) चञ्चल नेत्रोंसे आँसुओंका ढुलकना ऐसा (भला) लगता है मानो कमल (कोश) में क्रीड़ासे अत्यन्त थककर भौंरे विवस गिरे पड़ते हों । मणिजटित स्वर्णमय कुण्डलों की कान्ति इस प्रकार जगमग कर रही है, जैसे अपने मित्र (कमल) को छुड़ानेके लिये दो चञ्चल गतिवाले सूर्य उतर आये हों! घुँघराली अलकें तो ऐसी लगती हैं मानो भ्रमरोंका समूह एकत्र होकर युद्ध करना चाहता है ।’ सूरदासजी कहते हैं कि यह मुखकी कान्ति देखकर (जो कि देखनेही योग्य है) उसकी शोभाका वर्णन मैं नहीं कर पाता ।

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मुख-छबि कहा कहौं बनाइ ।

निरखि निसि-पति बदन-सोभा, गयौ गगन दुराइ ॥

अमृत अलि मनु पिवन आए, आइ रहे लुभाइ ।

निकसि सर तैं मीन मानौ,, लरत कीर छुराइ ॥

कनक-कुंडल स्रवन बिभ्रम कुमुद निसि सकुचाइ।

सूर हरि की निरखि सोभा कोटि काम लजाइ ॥

भावार्थ / अर्थ :– इस मुख की शोभाका क्या बनाकर (उपमा देकर) वर्णन करूँ । इसकी छटाको देखकर चन्द्रमा (लज्जासे) आकाशमें छिप गया है । (अलकें ऐसी लगती हैं मानो) भौरों का झुंड अमृत पीने आया था और आकर लुब्ध हो रहा है । (नेत्रोंके मध्यमें नासिका ऐसी है मानो) सरोवर से निकलकर दो मछलियाँ लड़ रही थीं, एक तोता उन्हें अलग करने बीचमें आ बैठा है । कानोंमें सोनेके कुण्डलोंकी शोभाको देखकर रात्रिमें फूलनेवाले कुमुदके पुष्प भी संकुचित होते हैं । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरकी शोभा देखकर करोड़ों कामदेव लज्जित हो रहे हैं ।

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हरि-मुख देखि हो नँद-नारि ।

महरि! ऐसे सुभग सुत सौं, इतौ कोह निवारि ॥

सरद मंजुल जलज लोचन लोल चितवनि दीन ।

मनहुँ खेलत हैं परस्पर मकरध्वज द्वै मीन ॥

ललित कन-संजुत कपोलनि लसत कज्जल-अंक ।

मनहुँ राजत रजनि, पूरन कलापति सकलंक ॥

बेगि बंधन छोरि, तन-मन वारि, लै हिय लाइ ।

नवल स्याम किसोर ऊपर, सूर जन बलि जाइ ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कहती है-) ‘नन्दरानी ! श्यामके मुखकी ओर तो देखो । व्रजरानी! ऐसे मनोहर पुत्रपर इतना क्रोध करना छोड़ दो । शरत्कालीन (पूर्ण विकसित) सुन्दर कमल के समान इसके चञ्चल नेत्र इस प्रकार दीन (भयातुर) होकर देख रहे हैं, मानो कामदेव की दो मछलियाँ परस्पर खेल रही हों । सुन्दर कपोलोंपर मक्खनके कणों के साथ (आँसू के साथ नेत्रोंसे आये ) काजलके धब्बे ऐसे शोभित हैं मानो रात्रिमें अपनी कालिमाके साथ पूर्ण चन्द्रमा शोभित हो । झटपट बन्धन खोलकर,तन-मन इसपर न्यौछावर करके इसे हृदयसे लगा लो ।’ सूरदासजी कहते हैं कि नवलकिशोर श्यामसुन्दर पर यह सेवक बार-बार न्योछावर होता है ।