राग बिलावल
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ग्वाल सखा कर जोरि कहत हैं,
हमहि स्याम! तुम जनि बिसरावहु ।
जहाँ-जहाँ तुम देह धरत हौ,
तहाँ-तहाँ जनि चरन छुड़ावहु ॥
ब्रज तैं तुमहि कहूँ नहिं टारौं ,
यहै पाइ मैहूँ ब्रज आवत ।
यह सुख नहिं कहुँ भुवन चतुर्दस,
इहिं ब्रज यह अवतार बतावत ॥
और गोप जे बहुरि चले घर,
तिन सौं कहि ब्रज छाक मँगावत ।
सूरदास-प्रभु गुप्त बात सब,
ग्वालनि सौं कहि-कहि सुख पावत ॥
भावार्थ / अर्थ :– गोपसखा हाथ जोड़कर कहते हैं -‘श्यामसुन्दर ! तुम हमें कभी भूलना मत ।
जहाँ-जहाँ भी तुम शरीर (अवतार) धारण करो, वहाँ-वहाँ हमसे अपने चरण छुड़ा मत लेना
(हमें भी साथ ही रखना)।’ (श्रीकृष्णचन्द्र बोले-) ‘व्रजसे तुमलोगोंको कहीं पृथक
नहीं हटाऊँगा; क्योंकि यही (तुम्हारा साथ) पाकर तो मैं भी व्रजमें आता हूँ । इस
व्रजमें इस अवतारमें जो आनन्द प्राप्त हो रहा है, यह आनन्द चौदहों लोकोंमें कहीं
नहीं है ।’
यह मोहन ने बतलाया तथा जो कुछ गोपबालक लौटकर घर जारहे थे, उनसे कहकर ‘छाक’
(दोपहरका भोजन) मँगवाया । सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी अपने गोप-सखाओं से सब
गुप्त (रहस्यकी) बातें बतला-बतलाकर आनन्द पाते हैं ।
[305]
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काँधे कान्ह कमरिया कारी, लकुट लिए कर घेरै हो ।
बृंदाबन मैं गाइ चरावै, धौरी, धूमरि टेरै हो ॥
लै लिवाइ ग्वालनि बुलाइ कै, जहँ-जहँ बन-बन हेरै हो ।
सूरदास प्रभु सकल लोकपति, पीतांबर कर फेरै हो ॥
भावार्थ / अर्थ :– कन्हाई कंधेपर काला कम्बल और हाथमें छड़ी लेकर गायें हाँकता है ।
वृन्दावनमें वह गायें चराता है और ‘धौरी’, ‘धूमरी’ इस प्रकार नाम ले-लेकर उन्हें
पुकारता है ।गोपकुमारको पुकारकर साथ लेकर -लिवाकर जहाँ-तहाँ वन-वनमें उन (गायों)
को ढूँढ़ता है । सूरदासका यह स्वामी समस्त लोकों का नाथ होनेपर भी हाथसे पीताम्बर
(पटुका) उड़ा रहा है । (इस संकेतसे गायोंको बुला रहा है ।)
व्रज–प्रवेश–शोभा
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